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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
कुवचन के त्याग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (अशपतः) न शाप देनेवाले (नः) हम लोगों को (शपात्) शाप देवे, (च) और (यः) जो (शपतः) शाप देनेवाले (नः) हम लोगों को (शपात्) शाप देवे। (विद्युता) बिजुली से (हतः) मारे गये (वृक्षः इव) वृक्ष के समान वह (आ मूलात्) जड़ से लेकर (अनु) निरन्तर (शुष्यतु) सूख जावे ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो दुष्ट धर्मात्माओं में दोष लगावे, राजा उसको यथोचित दण्ड देवे ॥१॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आ चुका है-अ० ६।३७।३ ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी: १−(यः) दुष्टः (नः) अस्मान् (शपात्) शपेत्। निन्देत् (अशपतः) अशापिनः (शपतः) शापकारिणः (यः) (च) (नः) (शपात्) (वृक्षः) (इव) (विद्युता) अशन्या (हतः) भस्मीकृतः (आ मूलात्) मूलमारभ्य (अनु) निरन्तरम् (शुष्यतु) शुष्को भवतु ॥