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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विष नाश का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे बिच्छू !] (यः) जो तू (उभाभ्याम्) दोनों (पुच्छेन) पूँछ से (च च) और (आस्येन) मुख से (प्रहरसि) चोट मारता है। (ते) तेरे (आस्ये) मुख में (विषम्) विष (न) नहीं है, (उ) तौ, (ते) (पुच्छधौ) पूँछ की थैली में (किम्) क्या (असत्) होवे ॥८॥
भावार्थभाषाः - बिच्छू के मुख में तो विष नहीं होता, उसकी पूँछ के विष को भी विद्वान् लोग ओषधि द्वारा नाश करें ॥८॥
टिप्पणी: ८−(यः) (उभाभ्याम्) द्वाभ्याम् (प्रहरसि) बाधसे (पुच्छेन) म० ६। लाङ्गलेन (आस्येन) मुखेन (च च) समुच्चये (आस्ये) मुखे (न) निषेधे (ते) तव (विषम्) (किम् असत्) किं स्यात्, न भवेदित्यर्थः (ते) तव (पुच्छधौ) पुच्छ+डुधाञ्-कि। पुच्छधान्याम् ॥