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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विज्ञान की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रध्नः) नियम में बाँधनेवाले [सूर्यरूप] परमेश्वर ने (समीचीः) परस्पर मिली हुई, (अरेपसः) निर्मल, (सचेतसः) समान चेतानेवाली, (मन्युमत्तमाः) अत्यन्त चमकनेवाली (उषसः) उषाओं को (स्वसरे) दिन में (गोः) पृथिवी के (चिते) ज्ञान के लिये (सम्) यथावत् (ऐरयन्) भेजा है ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे परमेश्वर, सूर्य के आकर्षण द्वारा पृथिवी के घुमाव से रात्रि के पश्चात् प्रकाश करता है, वैसे ही विद्वान् लोग अज्ञान नाश करके ज्ञान के साथ प्रकाशमान होते हैं ॥२॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी: २−(ब्रध्नः) बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने-नक्, ब्रध इत्यादेशः। ब्रध्नः=अश्वः-निघ० १।१४। महान्-३।३। बन्धको नियामकः। सूर्यः। सूर्यादीनामकर्षकः परमात्मा (समीचीः) संगताः (उषसः) प्रभातवेलाः (सम्) सम्यक् (ऐरयन्) बहुवचनं छान्दसम्। ऐरयत्। प्रेरितवान् (अरेपसः) निर्मलाः (सचेतसः) समान चेतनकारिणीः (स्वसरे) दिने-निघ० १।९। (मन्युमत्तमाः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन दीप्तौ-युच्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा। मन्यन्त्यस्मादिषवः-निरु० १०।२९। अतिशयेन दीप्तयुक्ताः (चिते) चिती संज्ञाने-क्विप्। ज्ञानाय (गोः) भूमेः ॥