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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
दूरदर्शी होने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (पृथिवि) हे अन्तरिक्ष ! [वायु] (इदम्) इस (दिव्यम्) आकाश में छाये हुए (नभः) जल को (प्र) उत्तम रीति से (नभस्व) गिरा और (भिन्द्धि) छिन्न-भिन्न कर दे [फैला दे]। (धातः) हे पोषक, सूर्य ! (ईशानः) समर्थ तू (नः) हमारे लिये (दिव्यस्य) दिव्य [उत्तम गुणवाले] (उद्नः) जलके (दृतिम्) पात्र [मेघ] को (वि ष्य) खोल दे ॥१॥
भावार्थभाषाः - जैसे अन्तरिक्षस्थ वायु और सूर्य के संयोग-वियोग सामर्थ्य से आकाश से जल बरस कर संसार का उपकार करता है, वैसे ही विद्वान् लोग विद्या आदि शुभ गुणों की बरसा से उपकार करें ॥१॥
टिप्पणी: १−(प्र) प्रकर्षेण (नभस्व) नभते, वधकर्मा-निघ० २।१९। पातय (पृथिवि) अन्तरिक्ष-निघ० १।३। वायो इत्यर्थः (भिन्द्धि) छिन्नं भिन्नं कुरु (इदम्) (दिव्यम्) दिव्याकाशे भवम् (नभः) उदकम्-निघ० ११।१२। (उद्नः) पद्दन्नोमास्हृन्निश०। पा० ६।१।६३। उदकस्य, उदन्। उदकस्य (दिव्यस्य) उत्तमगुणस्य (नः) अस्मभ्यम् (धातः) हे पोषक सूर्य (ईशानः) समर्थः (वि ष्य) षो अन्तकर्मणि। विमुञ्च (दृतिम्) दृणातेर्ह्रस्वः। उ० ४।१८४। इति दॄ विदारणे-ति। चर्ममयं जलपात्रम् ॥