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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
शत्रुओं को हराने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सपत्नानाम्) शत्रुओं में से (यावन्तः) जितने लोग तुम (मा आयन्तम्) मुझ आते हुए को (प्रतिपश्यथ) निहारते हो। (द्विषताम्) उन वैरियों का (वर्चः) तेज (आ ददे) मैं लिये लेता हूँ (इव) जैसे (उद्यन् सूर्यः) उदय होता हुआ सूर्य (सुप्तानाम्) सोते हुए पुरुषों का ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य के उदय होने पर सोनेवाले आलसियों का बल घट जाता है, वैसे ही तेजस्वी पुरुष अपने वैरियों को पराक्रमहीन कर देवे ॥२॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी: २−(यावन्तः) यत्परिमाणाः (मा) माम् (सपत्नानाम्) शत्रूणां मध्ये (आयन्तम्) अभिगच्छन्तम् (प्रतिपश्यथ) निरीक्षध्वे (उद्यन्) उद्गच्छन् (सूर्यः) (इव) यथा (सुप्तानाम्) स्वपतां जनानाम् (द्विषताम्) अप्रियकराणाम् (वर्चः) तेजः (आददे) लटि रूपम्। गृह्णामि ॥