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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सभापति के कर्तव्यों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे सभासदो !] (यत्) जो (वः) तुम्हारा (मनः) मन (परागतम्) उचट गया है, (वा) अथवा (यत्) जो (इह वा इह) इधर-उधर [प्रतिकूल विषयों में] (बद्धम्) बँधा हुआ है। (वर्तयामसि) हम लौटाते हैं [जिससे] (वः मनः) तुम्हारा मन (मयि) मुझ में (रमताम्) ठहर जावे ॥४॥
भावार्थभाषाः - सभापति अपनी विशेष विज्ञानता से सभासदों का ध्यान निर्धारित विषय पर खींच कर कार्यसिद्धि करे ॥४॥
टिप्पणी: ४−(यत्) (वः) युष्माकम् (मनः) मननम् (परागतम्) धर्मविषयादन्यत्र गतम् (यत्) (बद्धम्) संसक्तम् (इह वा इह) इतस्ततः। अनिश्चितविषये (वा) अथवा (तत्) मनः (वः) युष्माकम् (आ) आकृष्य (वर्तयामसि) अभिमुखं कुर्मः (मयि) प्रधाने (वः) (रमताम्) रमु उपरमे। तिष्ठतु (मनः) ॥