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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सभापति के कर्तव्यों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सभे) हे सभा ! (ते) तेरा (नाम) नाम (विद्म) हम जानते हैं, तू (नरिष्टा) नरों की इष्ट देवी (वै) ही (नाम) नामवाली (असि) है। (न) और (ये के) जो कोई (ते) तेरे (सभासदः) सभासद् हैं, (ते) वे सब (मे) मेरे लिये (सवाचसः) एकवचन (सन्तु) होवें ॥२॥
भावार्थभाषाः - उसी सभा से मनुष्यों का इष्ट सिद्ध होता है, जहाँ पर सभापति और सभासद् एक मन होकर धर्म का प्रचार करते हैं ॥२॥
टिप्पणी: २−(विद्म) अ० १।२।१। वयं जानीमः (ते) तव (सभे) (नाम) नामधेयम् (नरिष्टा) नर+इष्टा। शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्। वा० पा० ६।१।९४। इति पररूपम्। नराणामिष्टा हिता (नाम) नाम्ना (वै) खलु (असि) वर्तसे (ये के) ये केचित् (ते) तव (सभासदः) सभ्याः (ते) सामाजिकाः (मे) मह्यम् (सन्तु) (सवाचसः) समानवाक्याः। एकवचनाः ॥