बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
तृष्णा त्याग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (तृष्टा) तू तृष्णा (तृष्टिका) लोभ में टिकनेवाली (असि) है, (विषा) विषैली (विषातकी) विष से जीवन दुःखित करनेवाली (असि) है। (यथा) जिससे तू (परिवृक्ता) परित्यक्ता (अससि) हो जावे, (इव) जैसे (ऋषभस्य) श्रेष्ठ पुरुष की (वशा) वशीभूत [प्रजा त्याज्य होती है, वैसा किया जावे] ॥२॥
भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् पुरुष लोलुपता आदि अनिष्ट चिन्ताओं को इस प्रकार त्याग दें, जैसे शूर सेनापति शरणागत शत्रुसेना को छोड़ देता है ॥२॥
टिप्पणी: २−(तृष्टा) म० १। तृष्णा (असि) भवसि (तृष्टिका) म० १। लोभे गतिशीला (विषा) अर्शआद्यच्। विषयुक्ता (विषातकी) विष+आ+तकि कृच्छ्रजीवने-अण्, ङीप्, नकारलोपः। विषेण आतङ्कति कृच्छ्रजीवनं करोति या सा (असि) (परिवृक्ता) परिवर्जिता। परित्यक्ता (यथा) येन प्रकारेण (अससि) शप् छान्दसः। भवसि (ऋषभस्य) श्रेष्ठस्य (वशा) वशीभूता। आयत्ता (इव) यथा ॥