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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
तृष्णा त्याग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (तृषिके) हे कुत्सित तृष्णा ! (तृष्टवन्दने) हे लोलुपता की लता रूपा ! तू (अमूम्) पीड़ा को (उत् छिन्धि) काट डाल, (तृष्टिके) हे लोभ में टिकनेवाली ! तू (यथा) जिससे (अमुष्मै) उस (शेप्यावते) शक्तिमान् पुरुष के लिये (कृतद्विष्टा) द्वेषनाशिनी (असः) होवे [वैसा किया जावे] ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य पीड़ादायिनी तृष्णा को छोड़कर ईर्ष्या-द्वेष नाश करने में समर्थ होवें ॥१॥
टिप्पणी: १−(तृष्टिके) ञितृषा पिपासायाम्-क्त। कुत्सिते। पा० ५।३।७४। इति क प्रत्ययः। हे कुत्सिततृष्णे (तृष्टवन्दने) वदि अभिवादनस्तुत्योः-युच्, टाप्। तृष्टस्य लोलुपताया लतारूपे (उत्) उत्कर्षेण (अमूम्) कृषिचमितनि० उ० १।८०। अम रोगे पीडने-ऊ प्रत्ययः स्त्रियाम्। पीडाम् (छिन्धि) भिन्द्धि (तृष्टिके) ञितृषा-क्विप्+टिक गतौ-क। तृषि लोभे टेकते गच्छति या सा तत्सम्बुद्धौ (यथा) येन प्रकारेण, तथा क्रियतामिति शेषः (कृतद्विष्टा) कृ हिंसायाम्-क्त। कृतं नाशितम् द्विष्टं द्वेषणं यया सा (असः) भवेः (अमुष्मै) प्रसिद्धाय (शेप्यावते) शेपो बलम्, स्वार्थे-यत्, टाप्। शक्तिमते पुरुषाय ॥