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शुम्भ॑नी॒ द्यावा॑पृथि॒वी अन्ति॑सुम्ने॒ महि॑व्रते। आपः॑ स॒प्त सु॑स्रुवुर्दे॒वीस्ता नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शुम्भनी इति । द्यावापृथिवी इति । अन्तिसुम्ने इत्यन्तिऽसुम्ने । महिव्रते इति महिऽव्रते । आप: । सप्त । सुस्रुवु: । देवी: । ता: । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥११७.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:7» सूक्त:112» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

इन्द्रियों के जय का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (शुम्भनी) शोभायमान (द्यावपृथिवी) सूर्य और पृथिवी लोक (अन्तिसुम्ने) [अपनी] गतियों से सुख देनेवाले और (महिव्रते) बड़े व्रत [नियम] वाले हैं। (देवीः) उत्तम गुणवाली (सप्त) सात (आपः) व्यापनशील इन्द्रियाँ [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख] (सुस्रुवुः) [हमें] प्राप्त हुई हैं, (ताः) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥१॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य और पृथिवी लोक ईश्वरनियम से अपनी-अपनी गति पर चल कर वृष्टि अन्न आदि से उपकार करते हैं, वैसे ही मनुष्य इन्द्रियों को नियम में रखकर अपराधों से बचें ॥१॥ (सप्त आपः) पदों का मिलान करो (सप्त सिन्धवः) पदों से-अ० ४।६।२ ॥
टिप्पणी: १−(शुम्भनी) शुम्भ शोभायाम्-ल्युट्। शुम्भन्यौ शोभायमाने (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (अन्तिसुम्ने) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। अम गतौ−ति। सुम्नं सुखम्-निघ० ३।६। स्वगतिभिः सुखकारिण्यौ (महिव्रते) अत्यन्तनियमयुक्ते (आपः) व्यापनशीलानीन्द्रियाणि। शीर्षण्यानि कर्णनासिकाचक्षुर्द्वयमुखानि। सिन्धवः-अ० ४।६।२। (सप्त) अ० ४।६।२। सप्तसंख्याकाः (सुस्रुवुः) स्रु गतौ-लिट्। अस्मान् प्रापुः (देवीः) दिव्यगुणाः (ताः) आपः (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (अंहसः) कष्टात् ॥