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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
व्यवहारसिद्धि का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (प्रतिदीव्ने) प्रतिकूल व्यवहार करनेवाले के नाश करने को (घृतेन) प्रकाश के साथ (अस्मान् अभि) हमारे ऊपर (आदिनवम्) प्रथम नवीन वा स्तुतिवाले [बोध] को (क्षर) छिड़क। (यः) जो (अस्मान्) हमसे (प्रतिदीव्यति) प्रतिकूल व्यवहार करता है, [उसे] (जहि) मार डाल, (वृक्षम् इव) जैसे वृक्ष को (अशन्या) बिजुली से ॥४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य वैदिक ज्ञान से अपने विरोधी शत्रु वा अज्ञान का सर्वथा नाश करें ॥४॥
टिप्पणी: ४−(आदिनवम्) णु स्तुतौ-अप्। आदौ प्रथमं नवो नूतनो यस्तम्, अथवा नवः स्तवो यस्य तं बोधम् (प्रतिदीव्ने) कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्विद्युप्रतिदिवः। उ० १।१५६। प्रति+दिवु व्यवहारे-कनिन्। वा दीर्घः। क्रियार्थोपपदस्य च०। पा० २।३।१४। इति चतुर्थी। प्रतिदिवानं प्रतिकूलव्यवहारिणं नाशयितुम् (घृतेन) प्रकाशेन (अस्मान्) धार्मिकान् (अभि) प्रति (क्षर) क्षर संचलने। वर्षय (वृक्षम्) (इव) यथा (अशन्या) विद्युता (जहि) मारय (यः) शत्रुः (अस्मान्) (प्रतिदीव्यति) प्रतिकूलं व्यवहरति ॥