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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
संग्राम में जय का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अद्य) आज (यः) (सेन्यः) शत्रु सेना सम्बन्धी (वधः) शस्त्रसमूह (जिघांसन्) मारने की इच्छा करता हुआ (नः) हम पर (उदीरते) चढ़ा आता है। (तत्र) उसमें (इन्द्रस्य) महाप्रतापी इन्द्र परमात्मा के (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रम को (समन्तः) सब प्रकार (परिदद्मः) हम ग्रहण करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य कठिन समय में परमात्मा का आश्रय लेकर शत्रुओं का सामना करके दुःख से निवृत्त होवें ॥२॥
टिप्पणी: २−(यः) (अद्य) वर्तमाने दिने (सेन्यः) सेना यत्। शत्रुसेनासंबन्धी (वधः) हननसाधकः शस्त्रसमूहः (जिघांसन्) हन्तुमिच्छन् (नः) अस्मान् (उदीरते) उद्गच्छति (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमात्मनः (तत्र) तस्मिन् कर्मणि (बाहू) भुजवद्बलपराक्रमौ (समन्तम्) सर्वतः (परिदद्मः) अङ्गीकुर्मः। आश्रयामः ॥