आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सखायः) हे परस्पर सहायक मित्रो ! (इमम्) इस (वीरम् अनु) वीर सेनापति के साथ (हर्षध्वम्) हर्ष करो, (ओजसा) अपने शरीर, बुद्धि और सेना बल से (ग्रामजितम्) शत्रुओं के समूह को जीतनेवाले, (गोजितम्) उनकी भूमि को जीतनेवाले (वज्रबाहुम्) अपनी भुजाओं में शस्त्र रखनेवाले, (अज्म) संग्राम को (जयन्तम्) विजय करनेवाले (प्रमृणन्तम्) वैरियों को मार डालनेवाले (उग्रम्) तेजस्वीः, (इन्द्रम् अनु) महा प्रतापी सेनाध्यक्ष के साथ होकर (सम्) अच्छे प्रकार (रभध्वम्) युद्ध आरम्भ करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - सेनापति और सैनिक लोग परस्पर सहायक होकर शत्रुओं का राज्य आदि पाकर प्रजापालन करके सदा सुखी रहें ॥३॥ यह मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, राजप्रजाधर्म विषय में पृष्ठ २२४ पर व्याख्यात है, और कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० १७ म० ३८ ॥