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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ओषधियों के गुणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो कुछ पाप (चक्षुषा) नेत्र से (च) और (यत्) जो कुछ (मनसा) मन से और (यत्) जो कुछ (वाचा) वाणी से (जाग्रतः) जागते हुए [अथवा] (स्वपन्तः) सोते हुए (उपारिम) हमने किया है। (सोमः) बड़े ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (नः) हमारे (तानि) उन पापों की (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (पुनातु) शुद्ध करे ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर के विचार और युक्त आहार-विहार से सोते-जागते सदा धर्म का विचार और अनुष्ठान करते रहें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(यत्) पापम्। किल्बिषम्। मन्त्र २ (चक्षुषा) नेत्रेण (मनसा) मननसाधकेन चित्तेन (वाचा) वाण्या (उपारिम) अ० ६।४५।२। कृतवन्तः (जाग्रतः) जागृ निद्राक्षये−शतृ। जक्षित्यादयः षट्। पा० ६।१।६। इत्यभ्यस्तत्वात्। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। इति नुमभावः। जागरदवस्थापन्नाः (स्वपन्तः) निद्रालवः (सोमः) सर्वैश्वर्यवान् जगदीश्वरः, (तानि) किल्बिषाणि (स्वधया) अ० २।२९।७। स्व+डुधाञ् धारणपोषणयोः−क, टाप्। आत्मधारणशक्त्या (नः) अस्माकम् (पुनातु) शोधयतु ॥