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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ओषधियों के गुणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - वे [ओषधे] (मा) मुझको (शपथ्यात्) शपथसम्बन्धी (अथो) और (वरुण्यात्) श्रेष्ठों में हुए [अपराध] से (अथो) और (यमस्य) न्यायकारी राजा के (पड्वीशात्) बेड़ी डालने से (उत) और (विश्वस्मात्) सब (देवकिल्बिषात्) इन्द्रियों के दोष से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रमादकारक द्रव्यों को छोड़ कर सात्विक भोजन करें। जिससे साधु स्वभाव रहकर सौगन्द, श्रेष्ठों के अपराध, राजा के बन्धन और इन्द्रियों के विकार से पृथक् रहें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से है−ऋग्० १०।९७।१५, यजु० १२।९० ॥
टिप्पणी: २−(मुञ्चन्तु) विसृजन्तु (मा) माम् (शपथ्यात्) शपथे भवात् (अथो) अपि च (वरुण्यात्) वरुणेषु वरेषु भवादपराधात् (उत) अपि (अथो) (यमस्य) न्यायिनो राज्ञः (पड्वीशात्) सर्त्तरटिः। उ० १।१३४। इति पश बन्धने−अटि, स च डित्+विश प्रवेशे−क, छान्दसो दीर्घः। पड्भिः पदनाम−निघ० ४।२। पड्भिः पानैरिति वा स्पाशनैरिति वा स्पर्शनैरिति वा−निरु० ५।३। पाशप्रवेशात् (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (देवकिल्बिषात्) किल्बिषम्−अ० ५।१९।५। इन्द्रियाणां दोषात् ॥