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अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्वत्थ: । देवऽसदन: । तृतीयस्याम् । इत: । दिवि । तत्र । अमृतस्य । चक्षणम् । देवा: । कुष्ठम् । अवन्वत ॥९५.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:6» सूक्त:95» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

विद्वानों के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवसदनः) विद्वानों के बैठने योग्य (अश्वत्थः) वीरों के ठहरने का देश [अधिकार] (तृतीयस्याम्) तीसरी [निकृष्ट और मध्यम अवस्था से परे, श्रेष्ठ] (दिवि) गति में (इतः) प्राप्त होता है। (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत [पूर्ण सुख] के (चक्षणम्) दर्शन (कुष्ठम्) गुणपरीक्षक पुरुष को (देवाः) महात्माओं ने (अवन्वत) मांगा है ॥१॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग इस ईश्वरनियम को निश्चय करके मानते हैं कि अति विद्वान् पुरुषार्थी मनुष्य उच्च अधिकार के योग्य होता है ॥१॥ (अश्वत्थः) पीपल के वृक्ष को भी कहते हैं, इसका गुण−अ० ३।६।१। में वर्णन हो चुका है। (कुष्ठ) कूट ओषधि विशेष भी है, देखो−अ० ५।४।१ ॥
टिप्पणी: १−(अश्वत्थः) अ० ३।६।१। अश्व+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−क, पृषोदरादिरूपम्। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः। (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां परायां श्रेष्ठायाम् (दिवि) गतौ (कुष्ठम्) अ० ५।४।१। कुष निष्कर्षे−क्थन्। गुणपरीक्षकम् (अवन्वत) याचितवन्तः। अन्यद् गतम्−अ० ५।४।३ ॥