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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आत्मिक दोष नाश करने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वातः) वायु (न्यक्) नीचे की ओर (वाति) बहता है, (सूर्यः) सूर्य (न्यक्) नीचे की ओर (तपति) तपता है (अघ्न्या) न मारने योग्य गौ (नीचीनम्) नीचे को (दुहे=दुग्धे) दूध देती है, [हे मनुष्य !] (ते) तेरा (रपः) दोष (न्यक्) नीचे की ओर (भवतु) होवे ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार वायु आदि पदार्थ निर्दोष होकर उपकार करते हैं, वैसे ही मनुष्य दोषों का त्याग कर उपकारी हों ॥२॥
टिप्पणी: २−(न्यक्) नि+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। निम्नम् (वातः) वायुः (वाति) गच्छति (न्यक्) (तपति) उपतापयति (सूर्यः) सरणशील आदित्यः (नीचीनम्) विभाषाञ्चेर०। पा० ५।४।८। इति न्यच्−स्वार्थे ख, खस्य ईनादेशः (अघ्न्या) अहन्तव्या गौः−निघ० २।११। (दुहे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। दुग्धे दुग्धं ददाति (न्यक्) अधोमुखम् (भवतु) (ते) तव (रपः) पापम् ॥