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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह (देव) दिव्य गुणवाला, (वनस्पतिः) सेवनीय गुणों का रक्षक (वरणः) स्वीकार करने योग्य [वैद्य अथवा वरणा अर्थात् वरुणवृक्ष] [राजरोग आदि को] (वारयातै) हटावे। (यः) जो (यक्ष्मः) राजरोग (अस्मिन्) इस पुरुष में (आविष्टः) प्रवेश कर गया है (तम्) उसको (उ) निश्चय करके (देवाः) व्यवहार जाननेवाले विद्वानों ने (अवीवरन्) हटाया है ॥१॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार से सद्वैद्य पूर्वज विद्वानों से शिक्षा पाकर बड़े-बड़े रोगों को वरण वा अन्य ओषधिद्वारा मिटाता है, वैसे ही मनुष्य उत्तम गुण को प्राप्त करके दुष्कर्मों का नाश करे ॥१॥ (वरणः) ओषधिविशेष भी है, जिसको वरुण, वरणा और उरण आदि कहते हैं। वरुण कटु, उष्ण, रक्तदोष, शीत वात हरनेवाला, चिकना और दीपन है ॥
टिप्पणी: १−(वरणः) सुयुरुवृञ युच्। उ० २।७४। इति वृञ्−वरणे=स्वीकरणे−युच्। स्वीकरणीयः। वैद्यो वरुणवृक्षो वा। वरुणस्य गुणाः। कटुत्वम् उष्णत्वम्, रक्तदोषशीतवातहरत्वम्, स्निग्धत्वम्, दीपनत्वम्−इति शब्दकल्पद्रुमात् (वारयातै) अ० ४।७।१। वारयातेर्लेटि आडागमः। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।४।९६। इति ऐकारः। वारयतु। निवर्तयतु (अयम्) प्रसिद्धः। (देवः) दिव्यः (वनस्पतिः) अ० १।३५।३। वन सेवने−अच्। वन+पतिः, सुट् च। सेवनीयगुणानां रक्षकः (यक्ष्मः) अ० २।१०।५। राजरोगः क्षयः (यः) (अस्मिन्) पुरुषे (आविष्टः) प्रविष्टः (तम्) यक्ष्मम् (उ) एव (देवाः) व्यवहारकुशला विद्वांसः (अवीवरन्) वारयतेर्लुङ् चङि रूपम्। निवारितवन्तः ॥