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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
रोग नाश करने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (रामायणी) प्राण वायु के रमणस्थान नाड़ियों में मार्गवाली (अपचित्) सुख नाश करनेवाली गण्डमाला आदि पीड़ा (असूतिका) बाँझ होकर (प्र पतिष्यति) चली जायगी। (ग्लौः) हर्षनाशक घाव (इतः) इस [रोगी] से (प्र पतिष्यति) चला जावेगा (सः) वह [घाव] (गलुन्तः) गलाव से कोमल होकर (नशिष्यति) नष्ट हो जावेगा ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार सद्वैद्य की ओषधि से रोग बढ़ने से रुककर नष्ट हो जाता है, वैसे ही मनुष्य विद्या की प्राप्ति से अविद्या को मिटा कर सुखी होता है ॥३॥
टिप्पणी: ३−(असूतिका) षूङ् प्राणिप्रसवे−क्त, स्वार्थे कन्। बन्ध्या। रोगानुत्पादिका सती (रामायणी) रमते आसु प्राणवायुरिति रामा नाड्यः, ता अयनं मार्गो यस्याः सा तथाभूता (अपचित्) म० १। हर्षनाशिका गण्डमालादिपीडा (प्रपतिष्यति) प्रकर्षेण गमिष्यति (ग्लौः) ग्लानुदिभ्यां डौः। उ० २।६४। इति ग्लै हर्षक्षये−डौ। हर्षनाशको व्रणः (इतः) एतस्माद् रोगिणः पुरुषात् (प्रपतिष्यति) (सः) ग्लौः (गलुन्तः) गल क्षरणे−क्विप्+उन्दी क्लेदने−क्त। नुदविदोन्द० पा० ८।२।५६। इति वैकल्पिकत्वाद् नत्वं न। गला गलनेन उन्तः उन्नः क्लिन्नः कोमलीकृतः (नशिष्यति) णश अदर्शने। अदृष्टो भविष्यति ॥