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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
रोग नाश करने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (एका) एक [गण्डमाला आदि] (एनी) चितकबरी, (एका) एक (श्येनी) श्वेतवर्ण, (एका) एक (कृष्णा) काली और (द्वे) दो (रोहिणी) लाल रंग हैं। (सर्वासाम्) सब [गण्डमाला आदि पीड़ाओं] का (नाम) नाम (अग्रभम्) मैंने ग्रहण किया है, (अवीरघ्नीः) अवीरों कातरों को नाश करती हुई (अप इतन) तुम चली जाओ ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार चिकित्सक रोग का वात पित्त श्लेष्म आदि निदान समझ कर गण्डमाला आदि रोगों की निवृत्ति करता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य अपनी कुवासनाओं का कारण समझ कर उनका नाश करे ॥२॥
टिप्पणी: २−(एनी) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति इण् गतौ−तन्। वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। इति ङीप्, तस्य च नः। चित्रवर्णा (एका) गण्डमालादिपीडा (श्येनी) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। इति श्यैङ् गतौ−इतन्। पूर्ववद्ङीप्, तस्य च नः। श्वेतवर्णा (एका) (कृष्णा) कृष्णवर्णा (एका) (रोहिणी) रोहितशब्दस्य पूर्ववद्ङीप्नकारौ। रोहिण्यौ। लोहितवर्णे वातपित्तश्लेष्मवशाद् वर्णनानात्वाद् एतासां नानात्वम् (सर्वासाम्) अपचिताम् (अग्रभम्) अहमग्रहीषम् (नाम) प्रसिद्धौ (अवीरघ्नीः) बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।८९। इति वीर+हन वधे−क्विप्। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति ङीप्। अल्लोपोऽनः। पा० ६।४।१३४। अकारलोपः। वा च्छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। अवीरान् कातरान् सत्यः (अपेतन) तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१४५। इति एतेर्लोटि तस्य तनादेशः। अपगच्छत ॥