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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
उत्तम गर्भधारण का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (परिहस्त) हे हाथ का सहारा देनेवाले पुरुष ! (योनिम्) घर को (गर्भाय धातवे) गर्भ पुष्ट करने के लिये (वि) विशेष करके (धारय) सँभाल। (मर्यादे) हे मर्यादायुक्त पत्नी ! (पुत्रम्) [गर्भस्थ] कुलशोधक सन्तान को (आ) भले प्रकार से (धेहि) पुष्ट कर। (त्वम्) तू (तम्) उस [सन्तान] को (आगमे) योग्य समय पर (आ गमय) उत्पन्न कर ॥२॥
भावार्थभाषाः - उचित गृह आदि से यथावत् गर्भरक्षा करके पति-पत्नी सावधान रहें, जिससे बालक पूरे दिनों में उत्पन्न होवे ॥२॥
टिप्पणी: २−(परिहस्त) हे प्रसृतहस्त सहायार्थम् (वि) विशेषेण (धारय) स्थापय (योनिम्) गृहम्−निघ० ३।४। (गर्भाय) कर्मणि चतुर्थी। गर्भम् (धातवे) धाञस्तुमर्थे तवेन्। धातुं पोषयितुम् (मर्यादे) मर्यादा−अर्शआद्यच्। हे मर्यादायुक्ते पत्नि (पुत्रम्) अ० १।११।५। गर्भस्थं कुलशोधकं सन्तानम् (आ) समन्तात् (धेहि) पोषय (तम्) गर्भम् (त्वम्) (आ गमय) उत्पादय (आगमे) आगमनकाले। उत्पत्तियोग्यस्थाने ॥