पदार्थान्वयभाषाः - जो पुरुष (तिस्रः) तीन [अपने मानुष स्थान, नाम और जाति रूप] (परावतः) उत्कृष्ट भूमियों [वा धामों] को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर (एतु) चले, और (पञ्च जनान्) पाँच [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों वर्ण, और पाचवें नीच योनि, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि] प्राणियों [की मर्यादा] को [उलाँघकर] (एतु) चले। वह पुरुष (तिस्रः रोचनाः) तीन [जीव, प्रकृति और परमेश्वर की] रुचि योग्य विद्याओं को [अथवा, सूर्य, चन्द्र और अग्नि के] प्रकाशों को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर [वहाँ] (एतु) चला जावे, (यतः) जहाँ से वह (शश्वतीभ्यः समाभ्यः) बहुत बरसों तक (पुनः) फिर (न) न (आयति) आवे, (यावत्) जब तक (सूर्यः) सूर्य (दिवि) अन्तरिक्ष में (असत्) रहे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य मानुषी मर्यादा को छोड़ कर महाघोर पातक करते हैं, उनकी तामसी वृत्ति हो जाती है, और वे जन्म-जन्मान्तरों तक सदा दुःखसागर में डूबे रहते हैं ॥३॥ इस मन्त्र का मिलान करो−ऋग्वेद २।२७।८, ९ ॥ पदपाठ में (रोचना) पद के स्थान पर सायणभाष्य के अनुसार (रोचनाः) ऐसा पद हमने माना है ॥