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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
यश की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (शुभः) शुभ कर्म के (पती) पालन करनेवाले (अश्विना) हे कर्मों में व्याप्तिवाले माता-पिता ! (सारघेण) सार अर्थात् बल वा धन के पहुँचानेवाले (मधुना) ज्ञान से (मा) मुझ को (अङ्क्तम्) प्रकाशित करो। (यथा) जिससे (जनान् अनु) मनुष्यों के बीच (भर्गस्वतीम्) तेजोमयी (वाचम्) वाणी को (आवदानि) मैं बोला करूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि माता-पिता से उत्तम शिक्षा पाकर मनुष्यों में सारगर्भित सत्य वचन बोलें ॥२॥
टिप्पणी: २−(अश्विना) अ० ६।३।३। कर्मसु व्याप्तिमन्तौ मातापितरौ (सारघेण) सार+घट संघाते, चुरादौ−ड। सारं घाटयति संग्राहयतीति तेन। सारस्य बलस्य धनस्य वा संग्राहकेण (मधुना) मन ज्ञाने−उ, नस्य धः। ज्ञानेन (अङ्क्तम्) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु−लोट्। प्रकाशयतम् (शुभः) शोभनस्य कर्मणः (पती) पालकौ (यथा) येन प्रकारेण (भर्गस्वतीम्) तेजोमयीम् (वाचम्) वाणीम् (आवदानि) उच्चारयाणि (जनान्) मनुष्यान् (अनु) अनुलक्ष्य ॥