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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे सेनापति !] (एषु) इन [अपने वीरों] में (वृषा=वृष्णः) ऐश्वर्यवान् पुरुष का (अजिनम्) चर्म [कवच] (आ नह्य) पहिना दे, और [शत्रुओं में] (हरिणस्य) हरिण का (भियम्) डरपोकपन (कृधि) करदे। (अमित्रः) शत्रु (पराङ्) उलटे मुख होकर, (एषतु) चला जावे (गौः) भूमि [युद्धभूमि और राज्य] (अर्वाची) हमारी ओर (उप एषतु) चली आवे ॥३॥
भावार्थभाषाः - सेनापति अपने वीरों को कवच आदि पहिना कर शत्रुओं को भयभीत करके रणभूमि और राज्य अपने हाथ करे ॥३॥
टिप्पणी: ३−(एषु) स्वभटेषु (आ नह्य) आवधान। आच्छादय (वृषा) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति षष्ठ्याः सु। वृष्णः। इन्द्रस्य। ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (अजिनम्) अ० ४।७।६। चर्म। कवचम् (हरिणस्य) मृगस्य (भियम्) भीतिम् (कृधि) कुरु शत्रुषु (पराङ्) षण्मुखः सन् (अमित्रः) शत्रुः (एषतु) इष गतौ गच्छतु। पलायताम् (अर्वाची) अस्मदभिमुखा। अनुकूला (गौः) पृथ्वी−निघ० १।१। रणभूमिः। राजभूमिः (उप एषतु) समीपं प्राप्नोतु ॥