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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (धाता) विधाता ने (पृथिवीम्) पृथिवी को, (उत) और (धाता) विधाता ने (द्याम्) आकाश और (सूर्यम्) सूर्य को (दाधार) धारण किया। (धाता) वही विधाता (अस्यै) इस (अग्रुवै) उद्योगशील कन्या को (प्रतिकाम्यम्) प्रतिज्ञा करके चाहने योग्य (पतिम्) पति (दधातु) देवे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे परमात्मा सब संसार के धारण-पोषण में समर्थ है, वैसे ही कन्या और कुमार [उपलक्षण से] विद्या और धन आदि से समर्थ होकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(धाता) विधाता सर्वकर्त्ता (दाधार) तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा० ६।१।७। इत्यभ्यासस्य दीर्घः। दाधार। धृतवान् (पृथिवीम्) विस्तृतां भूमिम् (धाता) (द्याम्) आकाशम् (उत) अपि च (सूर्यम्) लोकानां प्रेरकमादित्यम् (धाता) (अस्यै) प्रसिद्धायै (अग्रुवै) म० ३। उद्योगवत्यै कन्यायै (पतिम्) भर्तारम् (दधातु) ददातु (प्रतिकाम्यम्) अ० २।३६।५। प्रति प्रतिज्ञया कमनीयम् ॥