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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
दोष के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (जालाषेण) जलसम्बन्धी द्रव्य से [फोड़े को] (अभि सिञ्चत) सब और से सींचो, (जालाषेण) सुखकारक पदार्थों से [उसे] (उप सिञ्चत) पास से सींचो। (जालाषम्) सुखों का समूह [वेदज्ञान] (उग्रम्) तीक्ष्ण (भेषजम्) औषध है, (तेन) उससे [हे रुद्र] (नः) हमें (जीवसे) जीने के लिये (मृड) सुखी रख ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे वैद्य औषधियों द्वारा रोगों को अच्छा करते हैं, वैसे ही मनुष्य वेदज्ञान से अपने पाप नष्ट कर के सुखी होवें ॥२॥
टिप्पणी: २−(जालाषेण) जायते जः। जैर्जातैर्लष्यते वाञ्छ्यते। ज+लष इच्छायाम्−घञ्। जलाषमुदकम्−निघ० १।१२। सुखनाम−निघ० ३।६। तस्येदम्। पा० ४।१।९२। इति, अण्। जलसम्बन्धिना वस्तुना (अभि) अभितः (सिञ्चत) व्रणं प्रक्षालयत, हे वैद्याः (जालाषेण) सुखकरेण द्रव्येण (उप) उपेत्य (सिञ्चत) शोधयत (जालाषम्) तस्य समूहः। पा० ४।२।३७। इति, अण्। सुखस्य समूहो वेदज्ञानम् (उग्रम्) तीक्ष्णम् (भेषजम्) भयनिवारकं वस्तु (तेन) जालाषेण (नः) अस्मान् (मृड) सुखय (जीवसे) जीवनार्थम् ॥