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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आत्मा के दोष के नाश का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) किरणें (गोष्ठे) किरणों के स्थान, अन्तरिक्ष में (नि) बैठ कर (असदन्) ठहरी हैं, (मृगासः) खोजनेवाले पुरुषों ने (नि अविक्षत) [अपने कामों में] प्रवेश किया है। (नदीनाम्) स्तुति करनेवाली प्रजाओं की (ऊर्मयः) गतिक्रियाओं ने (अदृष्टाः) न दीखती हुई पंक्तियों को (नि नि) अति निश्चय करके (अलिप्सत) पाने की इच्छा की है ॥२॥
भावार्थभाषाः - सूर्य के चमकने पर सब मनुष्य आदि प्राणी परमेश्वर की स्तुति करते हुए अभीष्ट पदार्थो को खोजकर अपने-अपने कर्तव्य कर्म करते हैं ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १।१९१।४ ॥
टिप्पणी: २−(नि) अन्तर्भूय (गावः) किरणाः (गोष्ठे) गवां किरणानां स्थाने अन्तरिक्षे (असदन्) निषण्णा अभूवन् (नि) (मृगासः) मृग अन्वेषणे−क, असुक् च। मृगाः। अन्वेषकाः पुरुषाः (अविक्षत) नेर्विशः। पा० १।३।१७। इत्यात्मनेपदम्। शल इगुपधादनिटः क्सः। पा० ३।१।४५। इति लुङि च्लेः क्सः। स्वकार्याणि प्रविष्टा अभूवन् (नि नि) निश्चयेनैव (ऊर्मयः) अर्त्तेरूच्च। उ० ४।४४। इति ऋ गतौ−मि। गतिक्रियाः (नदीनाम्) नद−ङीप्। नदः स्तोता−निघ० ३।१६। स्तोत्रीणां प्रजानाम् (अदृष्टाः) अगोचराः पङ्क्तीः। अन्धकारयुक्तान् पदार्थान् (अलिप्सत) लभेः सनि। सनिमीमाघुरभलभ०। पा० ७।४।५४। इति अचः स्थाने इस्। स्कोः संयोगा०। पा० ८।२।२९। सकारलोपः। लब्धुमैच्छन् ॥