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तर्द॒ है पत॑ङ्ग॒ है जभ्य॒ हा उप॑क्वस। ब्र॒ह्मेवासं॑स्थितं ह॒विरन॑दन्त इ॒मान्यवा॒नहिं॑सन्तो अ॒पोदि॑त ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तर्द । है । पतङ्ग । है । जभ्य । है । उपऽक्वस । ब्रह्माऽइव । असम्ऽस्थितम् । हवि: । अनदन्त: । इमान् । यवान् । अहिसन्त: । अपऽउदित ॥५०.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:6» सूक्त:50» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

आत्मा के दोष निवारण का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (है) हे (तर्द) हे हिंसक काक आदि ! (है) हे (पतङ्ग) फुदकनेवाले टिड्डी आदि ! (हा) हे (जभ्य) वधयोग्य (उपक्वस) भूमि पर रेंगनेवाले कीड़े ! (ब्रह्मा इव) विद्वान् पुरुष ब्रह्मा के समान (असंस्थितम्) बिना संस्कार किये हुए (हविः) अन्न को, (इमाम्) इन् (यवान्) यव आदि अन्न को (अनदन्तः) न खाते हुए और (अहिंसन्तः) न तोड़ते हुए (अपोदित) उड़ जाओ ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् पुरुष कुपथ्य अन्न को छोड़कर चला जाता है, इसी प्रकार हिंसक पशु आदि जवादि अन्नों के खेतों को छोड़कर चले जावें ॥२॥
टिप्पणी: २−(तर्द) हिंसककाकादे (है) हे (पतङ्ग) पतनशील शलभादे (है) (जभ्य) हिंस्य (हा) हे (उपक्वस) उप+कु+अस गतौ−अच्। उप हीनतया कौ भूमौ असति गच्छतीति यः सः, तत्सम्बुद्धौ। हे कीटादे (ब्रह्मा) ऋत्विक्। महाविद्वान् (इव) यथा (असंस्थितम्) असंस्कृतम्। अपथ्यम् (हविः) अन्नम् (अनदन्तः) अभक्षयन्तः (इमान्) समीपस्थान् (यवान्) यवाद्यन्नानि (अहिंसन्तः) अविनाशयन्तः (अपोदित) अप+उत्+इण् गतौ लोट्। उड्डीय गच्छत ॥