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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (बभ्रु) हे पालनशील ! (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणी विद्या ! (संवननी) यथावत् सेवनीय और (समुष्पला) यथाविधि निवास की रक्षा करनेहारी तू [हम दोनों को] (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा। (अमूम्) उस [विदुषी] को (च च) और (माम्) मुझ को (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा, [हम दोनों के] (हृदयम्) हृदय को (समानम्) एक (कृधि) कर दे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो स्त्री-पुरुष पूर्ण विद्वान् होकर गृहस्थ बनते हैं, वे ही परस्पर उपकार करके सदा सुखी रहते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−(संवननी) सम्यक् सेवनीया (समुष्पला) वस निवासे−क्विप्। वचिस्वपियजादीनां किति। पा० ६।१।१५। इति सम्प्रसारणम्। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति षत्वम्। पल गतौ रक्षणे−अच्, टाप्। सम्यग् उषो गृहस्य पला पालयित्री विद्या (बभ्रु) अ० ४।२९।२। डुभृञ् कु, ऊङ्। अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वः। पा० ७।३।१०७। इति ह्रस्वः। हे पालनशीले (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणि विद्ये (सम्) संयोज्य (नुद) प्रवर्तय (अमूम्) विदुषीम् (च) (माम्) विद्वांसम् (समानम्) एकम् (हृदयम्) (कृधि) ॥