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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
खान-पान का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो कुछ (अश्नामि) मैं खाता हूँ [उसे] (बलम्) बल (कुर्वे) बना देता हूँ, (इत्थम्) तब मैं (वज्रम्) वज्र को (आ ददे) ग्रहण करता हूँ। (अमुष्य) उस [शत्रु] के (स्कन्धान्) कन्धों को (शातयन्) तोड़ता हुआ, (इव) जैसे (शचीपतिः) कर्म वा बुद्धि का स्वामी [शूर] (वृत्रस्य) शत्रु वा अन्धकार के ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य पाचनशक्ति से भोजन को भलीभाँति पचावे, जिस से वह शारीरिक और आत्मिक बल बढ़ाकर उसे सुखदायक हो। इसी मन्त्र का विवरण मन्त्र २ तथा ३ में है ॥१॥
टिप्पणी: १−(यत्) भोजनम् (अश्नामि) भुञ्जे (बलम्) (कुर्वे) करोमि (इत्थम्) एकम् (वज्रम्) वर्जकं शस्त्रम् (आ ददे) गृह्णामि (स्कधान्) स्कन्धादिशरीरावयवान् (अमुष्य) शत्रोः (शातयन्) शद्लृ शातने णिचि। शदेरगतौ तः। पा० ७।३।४२। इति तकारादेशः, शतृ प्रत्ययः। छिन्दन् (इव) यथा (शचीपतिः) अ० ३।१०।१२। कर्मणां प्रज्ञानां वा पालकः ॥