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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परस्पर पालन का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (शीर्षतः) अपने मस्तक [सामर्थ्य] से (नि) निश्चय करके, (पत्ततः) अपने पद [के सामर्थ्य] से (नि) नियम करके (आध्यः) यथावत् ध्यान धर्मों को (नि) लगातार (तिरामि) मैं पार करूँ। (देवाः) हे विद्वानों ! (स्मरम्) स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ से स्मरण शक्ति बढ़ाकर सुखी होवे ॥१॥
टिप्पणी: १−(नि) निश्चयेन (शीर्षतः) शिरःसामर्थ्यात् (नि) नियमेन (पत्ततः) एकस्तकारश्छान्दसः। पत्तः। पादसामर्थ्यात् (आध्यः) आध्यायते आधीः। ध्यायतेः क्विप् सम्प्रसारणं च। वा० पा० ३।२।१७८। आङ्+ध्यै चिन्तायाम्−क्विप्, शसि रूपम्। सम्यग्ध्यानधर्मान् (नि) निरन्तरम् (तिरामि) मुदादित्वादिकारः। पारं गमयामि। समापयामि। अन्यत् पूर्ववत्−सू० १३० म० १ ॥