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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे पिप्पली] (असुराः) बुद्धिमान् पुरुषों ने (वातीकृतस्य) गठिया के रोगी की (भेषजीम्) ओषधी, (अथो) और (क्षिप्तस्य) उन्मत्त की (भेषजीम्) ओषधि (त्वा) तुझको (नि) निरन्तर (अखनन्) खोदा है और (देवाः) व्यवहारकुशल पुरुषों ने (त्वा) तुझको (पुनः) फिर (उत्) उत्तम रीति से (अवपन्) बोया है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे सद्वैद्य परीक्षा करके पिप्पली आदि ओषधियों को खोदते और बाते और काम में लाते हैं, वैसे ही विद्वान् पुरुष विद्या का सुप्रयोग करते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−(असुराः) प्रज्ञावन्तः (त्वा) पिप्पलीम् (नि) निरन्तरम् (अखनन्) खननेन प्राप्तवन्तः (देवाः) व्यवहारकुशलाः (उत्) उत्कर्षेण (अवपन्) टुवप बीजतन्तुसन्ताने। रोपितवन्तः (वातीकृतस्य) वातरोगग्रस्तस्य पुरुषस्य (भेषजीम्) भयनिवर्तिकाम् (अथो) अपि च (क्षिप्तस्य) विक्षिप्तस्य (भेषजीम्) ओषधिम् ॥