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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गढ़ बनाने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अपाम्) प्रजाओं का (इदम्) यह (न्ययनम्) निवासस्थान (समुद्रस्य) जलसमूह का (निवेशनम्) प्रवेश हो। (नः गृहाः) हमारे घर (ह्रदस्य) ताल वा खाई के (मध्ये) बीच में हों, [हे राजन् शत्रुओं के] (मुखा) मुखों को (पराचीना) उलटा (कृधि) कर दे ॥२॥
भावार्थभाषाः - राजा प्रजा की रक्षा के लिये दुर्ग के चारों ओर जल की गहरी खाई रक्खे, जिससे शत्रुओं का मार्ग रुका रहे ॥२॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध यजुर्वेद में है−अ० १७ म० ७ ॥
टिप्पणी: २−(अपाम्) प्रजानाम्। आपः=आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये−यजु० ६।२७। (इदम्) (न्ययनम्) इण्−ल्युट्। निवासस्थानम् (समुद्रस्य) जलौघस्य (निवेशनम्) प्रवेशनम् (मध्ये) (ह्रदस्य) जलाशयस्य। परिखायाः (नः) अस्माकम् (गृहाः) गेहानि (पराचीना) प्रतिकूलानि (कृधि) कुरु ॥