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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गढ़ बनाने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (आयने) आगमनमार्ग और (परायणे) निकास में (पुष्पिणीः) फूलवाली (दूर्वाः) दूब घासें (रोहन्तु) उगें। (वा) और (तत्र) वहाँ (उत्सः) कुआँ (वा) और (पुण्डरीकवान्) कमलोंवाला (ह्रदः) ताल (जायताम्) होवे ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य दुर्ग और घरों के आस-पास के दृश्य को सुख बढ़ानेवाले दूध, जल, कमल आदि से स्वस्थता के लिये सुशोभित रक्खें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १० स० १४२ म० ८ ॥
टिप्पणी: १−(आयने) आङ्+इण् गतौ−ल्युट्। आगमने (ते) तव (परायणे) इण्−ल्युट्। बहिर्गमने (दूर्वाः) दूर्वी हिंसायाम्−अ। स्वनामख्यातघासाः। सहस्रवीर्याः। हरिताः (रोहन्तु) उद्भवन्तु (पुष्पिणीः) बहुपुष्पयुक्ताः (उत्सः) अ० १।१५।३। कूपः−निघ० ३।२३। (वा) चार्थे (तत्र) तस्मिन् देशे (जायताम्) वर्तताम् (ह्रदः) अगाधजलाशयः (पुण्डरीकवान्) फर्फरीकादयश्च। उ० ४।२०। इति पुडि खण्डने−यद्वा पुण शुभकर्मणि−ईकन्, उभयपक्षे पृषोदरादित्वात्साधुः। कमलैर्युक्तः ॥