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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
महिमा पाने के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे (सुसंशितः) यथाविधि तीक्ष्ण किया हुआ (बाणः) बाण वा शब्द (आशुमत्) वेग से (परापतति) आगे बढ़ा जाता है। (एव) वैसे ही [हे मनुष्य !] (त्वम्) तू (कासे) ज्ञान वा उपाय के बीच (पृथिव्याः) पृथिवी के (संवतम् अनु) यथावत् सेवनीय देश की ओर (प्रपत) आगे बढ़ ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार यथावत् सन्धान किया हुआ बाण और ठीक-ठीक बोला गया शब्द लक्ष्य पर शीघ्र पहुँचता है, वैसे ही मनुष्य यथावत् ज्ञान और उपाय से पृथिवी पर अभीष्ट पदार्थ को शीघ्र प्राप्त करे ॥२॥
टिप्पणी: २−(बाणः) अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति वण शब्दे−घञ्। वाणो वाक्−निघ० १।११। शरः। शब्दः (सुसंशितः) शो तनूकरणे−क्त। सुष्ठु सम्यक् तीक्ष्णीकृतः (पृथिव्याः) भूम्याः (संवतम्) अ० ६।२९।३। सम्+वन संभक्तौ−क्विप्, नकारलोपे तुक्। सम्यग् वननीयं सेवनीयं देशम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० १ ॥