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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस कर्म से (कृशम्) दुर्बल को (वाजयन्ति) बली करते हैं और (येन) जिस से (आतुरम्) अशान्त पुरुष को (हिन्वन्ति) प्रसन्न करते हैं। (तेन) उसी कर्म से (ब्रह्मणस्पते) हे अन्न, वा धन, वा वेद वा ब्राह्मण के रक्षक परमेश्वर ! (अस्य) इसके (पसः) राज्य को (धनुः इव) धनुष के समान (आ) भले प्रकार (तानय) फैला ॥२॥
भावार्थभाषाः - राजा निर्बल और रोगियों को यथावत् सुख देकर अपने राज्य को सदा बढ़ावे ॥२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध कुछ भेद से आ चुका है−अ० ४।४।६ ॥
टिप्पणी: २−(येन) कर्मणा (कृशम्) दुर्बलम् (वाजयन्ति) वाजयति=अर्चति−निघ० ३।१४। वाजो बलम्−निघ० २।९। अर्शआद्यच्। वाजं बलिनं कुर्वन्ति वाजयन्ति (हिन्वन्ति) हिवि प्राणने। प्राणयन्ति (आतुरम्) मद्गुरादयश्च। उ० १।४१। अत सातत्यगमने उरच्, धातोः दीर्घः। अशान्तम्। रोगार्तम् (तेन) कर्मणा। अन्यद्गतम्−अ० ४।४।६। (पसः) पस बन्धने बाधे च−असुन्। राष्ट्रम्−दयानन्दभाष्ये यजु० २३।२२ ॥