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असु॑राणां दुहि॒तासि॒ सा दे॒वाना॑मसि॒ स्वसा॑। दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः संभू॑ता॒ सा च॑कर्थार॒सं वि॒षम् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

असुराणाम् । दुहिता । असि । सा । देवानाम् । असि । स्वसा । दिव: । पृथिव्या: । सम्ऽभूता । सा । चकर्थ । अरसम् । विषम् ॥१००.३॥

अथर्ववेद » काण्ड:6» सूक्त:100» पर्यायः:0» मन्त्र:3


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रोग नाश करने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे ओषधि !] (असुराणाम्) श्रेष्ठ बुद्धिमानों की (दुहिता) कामनायें पूरी करनेवाली (असि) है, (सा) सो तू (देवानाम्) उत्तम गुणों की (स्वसा) अच्छे प्रकार प्रकाश करनेवाली (असि) है। (दिवः) सूर्य से और (पृथिव्याः) पृथिवी से (संभूता) उत्पन्न हुई (सा) उस तुझ ने (विषम्) विष को (अरसम्) निर्बल (चकर्थ) कर दिया है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य के ताप और पृथिवी के संयोग से उत्पन्न औषधियों से उपकार होता है, वैसे ही मनुष्य परोपकार करके परस्पर लाभ उठावे ॥३॥
टिप्पणी: ३−(असुराणाम्) प्रज्ञावताम्−निरु० १०।३४। (दुहिता) अ० ५।१०।१३। कामानां पूरयित्री (असि) (स्वसा) अ० ५।५।१। सु+अस दीप्तौ−ऋन्। सुष्ठु दीपयित्री। स्वसा सुअसा स्वेषु सीदतीति वा−निरु० २१।३२। (दिवः) आदित्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (सम्भूता) उत्पन्ना (चकर्थ) त्वं कृतवती (अरसम्) निवीर्यम् (विषम्) विषरूपं दुःखम् ॥