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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) सो तू (नः) हमें (स्वस्तये) आनन्द के लिये (पर्ष) पार लगा, (इव) जैसे (नावा) नाव से (सिन्धुम्) समुद्र को (अति=अतीत्य) लाँघ कर [पार करते] हैं। (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर में निष्ठा करके पुरुषार्थपूर्वक दुःखसागर से पार होकर सुखी होवें, जैसे नाव के आश्रय से जलयात्री समुद्र पार करके प्रसन्न होते हैं ॥८॥
टिप्पणी: ८−(सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (सिन्धुम् इव) यथा समुद्रं तथा (नावा) नौकया (अति) अतीत्य (पर्ष) पॄ पालनपूर्णयोः, लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति−सिप्। पारं प्रापय। (स्वस्तये) आनन्दाय। अन्यत् पूर्ववत ॥