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त्वं हि वि॑श्वतोमुख वि॒श्वतः॑ परि॒भूर॑सि। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥

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पद पाठ

त्वम् । हि । विश्वत:ऽमुख । विश्वत: । परिऽभू: । असि । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.६॥

अथर्ववेद » काण्ड:4» सूक्त:33» पर्यायः:0» मन्त्र:6


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (हि) जिस कारण से (विश्वतोमुख) हे सब ओर मुखवाले [मुख के समान सर्वोपदेशक, सर्वोत्तम] परमेश्वर ! (त्वम्) तू (विश्वतः) सब ओर से (परिभूः) व्यापक (असि) है। (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर के समान (विश्वतोमुख) होकर सदा चैतन्य रहें और अनिष्टों को मिटा कर अपनी वृद्धि करें ॥६॥
टिप्पणी: ६−(त्वम्) (हि) (विश्वतोमुख) हे मुखवत् सर्वोपदेशक, सर्वोत्तम, परमात्मन् (विश्वतः) सर्वतः (परिभूः) अ० ३।२१।४। ग्रहीता व्यापकः (असि) अन्यत् पूर्ववत् ॥