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अपा॒दिन्द्रो॒ अपा॑द॒ग्निर्विश्वे॑ दे॒वा अ॑मत्सत। वरु॑ण॒ इदि॒ह क्ष॑य॒त्तमापो॑ अ॒भ्यनूषत व॒त्सं सं॒शिश्व॑रीरिव ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अपात् । इन्द्र: । अपात् । अग्नि: । विश्वे । देवा: । अमत्सत ॥ वरुण: । इत् । इह । क्षयत् । तम् । आप: । अभि । अनूषत । वत्सम् । संशिश्वरी:ऽइव ॥९२.८॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:92» पर्यायः:0» मन्त्र:8


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [प्रतापी सूर्य] ने [पृथिवी आदि के जल को] (अपात्) पिया है, (अग्निः) अग्नि ने [काठ हव्य आदि के रस को] (अपात्) पिया है, [उस से] (विश्वे) सब (देवाः) व्यवहार करनेवाले प्राणी (अमत्सत) तृप्त हुए हैं। (इह) इस [सब कर्म] में (वरुणः) श्रेष्ठ परमात्मा (इत्) ही (क्षयत्) समर्थ हुआ है, (तम्) उस [परमात्मा] को (आपः) प्राप्त प्रजाओं ने (अभि) सब प्रकार (अनूषत) [प्रीति से] सराहा है, (इव) जैसे (संशिश्वरीः) मिलती हुई गौएँ (वत्सम्) बछड़े को [प्रीति करती हैं] ॥८॥
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा के नियम से सूर्य जल को खींचकर वृष्टि द्वारा अन्न आदि उत्पन्न करने में, और आग लकड़ी, घी आदि पदार्थों को जलाकर अशुद्धि हटाने और भोजन आदि बनाने में उपकार करता है, उस परमेश्वर से सब मनुष्य आपा छोड़कर इस प्रकार प्रीति करें, जैसे गौ आपा छोड़कर अपने छोटे बच्चे से प्रीति करती है ॥८॥
टिप्पणी: ८−(अपात्) पा पाने-लुङ्। पीतवान् पृथिव्यादिजलम् (इन्द्रः) प्रतापी सूर्यः (अपात्) पीतवान् काष्ठहव्यादिरसम् (अग्निः) प्रसिद्धः (विश्वे) (देवाः) व्यवहारिणः प्राणिनः (अमत्सत) मदी हर्षे। तृप्ता अभवन् (वरुणः) श्रेष्ठः परमात्मा (इत्) एव (इह) अस्मिन् सर्वस्मिन् कर्मणि (क्षयत्) क्षि ऐश्वर्ये। समर्थोऽभवत् (तम्) वरुणम् (आपः) प्राप्ताः प्रजाः (अभि) (अनूषत) अ० २०।१७।१। अस्तुवन् (वत्सम्) गोशिशुम् (संशिश्वरीः) स्नामदिपद्यर्त्ति०। उ० ४।११३। सम्+शश प्लुतगतौ-वनिप्। अकारस्य इकारः। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। संशिश्वर्यः संगच्छमाना गावः (इव) यथा ॥