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देवता: इन्द्रः ऋषि: प्रियमेधः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त-९२

आ हर॑यः ससृज्रि॒रेऽरु॑षी॒रधि॑ ब॒र्हिषि॑। यत्रा॒भि सं॒नवा॑महे ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । हरय: । ससृज्रिरे । अरुषी: । अधि । ‍बर्हिषि ॥ यत्र । अभि । सम्ऽनवामहे ॥९२.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:92» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१-३ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (हरयः) दुःख हरनेवाले मनुष्य (अरुषीः) गतिशील [प्रजाओं] को (बर्हिषि) बढ़ती के स्थान में (अधि) अधिकारपूर्वक (आ ससृज्रिरे) लाये हैं, (यत्र) जहाँ पर [तुझ राजा को] (अभि) सब ओर से (संनवामहे) हम मिलकर सराहते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस राजा की सुनीति से विद्या द्वारा उन्नति होवे, प्रजासहित विद्वान् जन उसके गुणों का गान करें ॥२॥
टिप्पणी: १-३ व्याख्याताः-अ० २०।२२।४-६ ॥