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देवता: इन्द्रः ऋषि: कृष्णः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: सूक्त-८९

बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः। इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरी॑यः कृणोतु ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बृहस्पति: । न: । परि । पातु । पश्चात् । उत । उत्ऽतरस्मात् । अधरात् । अघऽयो: ॥ इन्द्र: । पुरस्तात् । उत । मध्यत: । न:। सखा । सखिऽभ्य: । वरीय: । कृणोतु ॥८९.११

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:89» पर्यायः:0» मन्त्र:11


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े शूरों का रक्षक सेनापति] (नः) हमें (पश्चात्) पीछे से, (उत्तरस्मात्) ऊपर से (उत) और (अधरात्) नीचे से (अघायोः) बुरा चीतनेवाले शत्रु से (परि पातु) सब प्रकार बचावे। (इन्द्रः) इन्द्र [वह बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (पुरस्तात्) आगे से (उत) और (मध्यतः) मध्य से (नः) हमारे लिये (वरीयः) विस्तीर्ण स्थान (कृणोतु) करे, (सखा) जैसे मित्र (सखिभ्यः) मित्रों के लिये [करता है] ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य वीरों में महावीर और प्रतापियों में महाप्रतापी होकर दुष्टों से प्रजा की रक्षा करे ॥११॥
टिप्पणी: यह मन्त्र आचुका है-अ० ७।१।१। मन्त्र १०, ११ की टिप्पणी भी ऊपर देखो ॥ ११−अयं मन्त्रो व्याख्यातः अ० ७।१।१ ॥