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देवता: इन्द्रः ऋषि: प्रगाथः छन्द: प्रगाथः स्वर: सूक्त-८५

अ॑वक्र॒क्षिणं॑ वृष॒भं य॑था॒जुरं॒ गां न च॑र्षणी॒सह॑म्। वि॒द्वेष॑णं सं॒वन॑नोऽभयंक॒रं मंहि॑ष्ठमुभया॒विन॑म् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अवऽक्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । अजुरम् । गाम् । न । चर्षणिऽसहम् ॥ विऽद्वेषणम् । सम्ऽवनना । उभयम्ऽकारम् । मंहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥८५.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:85» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (सखायः) हे मित्रो ! (अन्यत् चित्) और कुछ भी (मा वि शंसत) मत बोलो, और (मा रिषण्यत) मत दुःखी हो (च) और (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्व रस के बीच (मुहुः) बारम्बार (उक्था) कहने योग्य वचनों को (शंसत) कहो, [अर्थात्] (वृषणम्) महाबलवान्, (वृषभं यथा) जल बरसानेवाले मेघ के समान (अवक्रक्षिणम्) कष्ट हटानेवाले, और (गाम् न) [रसों को चलानेवाले और आकाश में चलनेवाले] सूर्य के समान (अजुरम्) सबके चलानेवाले, (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को वश में रखनेवाले, (विद्वेषणम्) निग्रह [ताड़ना] और (संवनना) अनुग्रह [पोषण], (उभयंकरम्) दोनों के करनेवाले, (उभयाविनम्) दोनों [स्थावर और जङ्गम] के रक्षक, (मंहिष्ठम्) अत्यन्त दानी (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] की (इत्) ही (सचा) मिला करके (स्तोत) स्तुति करो ॥१, २॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा को छोड़कर किसी दूसरे को बड़ा जानकर अपनी अवनति न करें, सदा उसी ही विपत्तिनाशक, सर्वपोषक के गुणों को ग्रहण करके आनन्द पावें ॥१, २॥
टिप्पणी: भगवान् यास्क मुनि ने कहा है−गौ सूर्य है, वह रसों को चलाता है, अन्तरिक्ष में चलता है-निरुक्त २।१४। यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१।१-४। मन्त्र १, २ सामवेद-उ० ६।१।, मन्त्र १-पू० ३।।१० ॥ २−(अवक्रक्षिणम्) अव रक्षणहिंसादिषु-अच्। वृतॄवदिवचि०”। उ० ३।६२। कृष विलेखने-सप्रप्रत्ययः। अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम्। पा० ६।१।९। अमागमः। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। अव+क्रक्ष-इनि। अवस्य दुःखस्य विलेखकं वहिष्कर्तारम् (वृषभम्) वृषभो वर्षिताऽपाम्-निरु० ४।८। जलवर्षकं मेघम् (यथा) (अजुरम्) मन्दिवाशिमथि०। उ० १।३८। अज गतिक्षेपणयोः-उरच्। सर्वप्रेरकम् (गाम्) गमेः-डो प्रत्ययः। गौरादित्यो भवति गमयति रसान्, गच्छत्यन्तरिक्षे-निरु० २।१४। आदित्यम् (न) यथा (चर्षणीसहम्) मनुष्याणां वशीकर्तारम् (विद्वेषणम्) वैरिभावम्। निग्रहम्। दण्डदानम् (संवनना) संवननम्। सम्यक् सेवनम्। अनुग्रहम्। पोषणम् (उभयंकरम्) उभयोर्विद्वेषणसेवननयोः कर्तारम् (मंहिष्ठम्) दातृतमम् (उभयाविनम्) अ० ।२।९। उभय+अव रक्षणे-इनि। उभयोः स्थावरजङ्गमयो रक्षकम् ॥