मा चि॑द॒न्यद्वि शं॑सत॒ सखा॑यो॒ मा रि॑षण्यत। इन्द्र॒मित्स्तो॑ता॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते मुहु॑रु॒क्था च॑ शंसत ॥
पद पाठ
मा । चित् । अन्यत् । वि । शंसत । सखाय । मा । रिषण्यत ॥ इन्द्रम् । इत् । स्तोत । वृषणम् । सचा । सुते । मुहु: । उक्था । च । शंसत ॥८५.१॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:85» पर्यायः:0» मन्त्र:1
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सखायः) हे मित्रो ! (अन्यत् चित्) और कुछ भी (मा वि शंसत) मत बोलो, और (मा रिषण्यत) मत दुःखी हो (च) और (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्व रस के बीच (मुहुः) बारम्बार (उक्था) कहने योग्य वचनों को (शंसत) कहो, [अर्थात्] (वृषणम्) महाबलवान्, (वृषभं यथा) जल बरसानेवाले मेघ के समान (अवक्रक्षिणम्) कष्ट हटानेवाले, और (गाम् न) [रसों को चलानेवाले और आकाश में चलनेवाले] सूर्य के समान (अजुरम्) सबके चलानेवाले, (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को वश में रखनेवाले, (विद्वेषणम्) निग्रह [ताड़ना] और (संवनना) अनुग्रह [पोषण], (उभयंकरम्) दोनों के करनेवाले, (उभयाविनम्) दोनों [स्थावर और जङ्गम] के रक्षक, (मंहिष्ठम्) अत्यन्त दानी (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] की (इत्) ही (सचा) मिला करके (स्तोत) स्तुति करो ॥१, २॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा को छोड़कर किसी दूसरे को बड़ा जानकर अपनी अवनति न करें, सदा उसी ही विपत्तिनाशक, सर्वपोषक के गुणों को ग्रहण करके आनन्द पावें ॥१, २॥
टिप्पणी: भगवान् यास्क मुनि ने कहा है−गौ सूर्य है, वह रसों को चलाता है, अन्तरिक्ष में चलता है-निरुक्त २।१४। यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१।१-४। मन्त्र १, २ सामवेद-उ० ६।१।, मन्त्र १-पू० ३।।१० ॥ १−(मा) निषेधे (चित्) अपि (अन्यत्) भिन्नं वस्तु (वि) विविधम् (शंसत) उच्चारयत (सखायः) हे सुहृदः (मा) निषेधे (रिषण्यत) रिषण हिंसायां दैत्ये च-यक् कण्ड्वादेराकृतिगणत्वात्। हिंसिता दुःखिता भवत (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानम् (इत्) एव (स्तोत) स्तुत यूयम् (वृषणम्) बलवन्तम् (सचा) समवायेन संघीभूय (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (मुहुः) पुनःपुनः (उक्था) कथनीयानि वचनीयानि (च) (शंसत) कथयत ॥