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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (हरिवः) हे उत्तम मनुष्योंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (तूतुजानः) शीघ्रता करता हुआ तू (ब्रह्माणि) धनों को (उप) प्राप्त होकर (आ याहि) आ। और (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस में (नः) हमारे लिये (चनः) अन्न को (दधिष्व) धारण कर ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य उत्तम विद्वानों के साथ रहकर धर्म से धन प्राप्त करते हैं, वे ही दूसरों को ज्ञानी और धनी बनाकर यश पाते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−(इन्द्र) (आ याहि) (तूतुजानः) अ० २०।३।१२। त्वरमाणः (उप) उपेत्य (ब्रह्माणि) धनानि (हरिवः) हे प्रशस्तमनुष्ययुक्त (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (दधिष्व) अ० २०।६।। धत्स्व। धारय (नः) अस्मान् (चनः) चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। उ० ४।२००। चायृ पूजादौ-असुन् चकाराद् नुडागमो यलोपो ह्रस्वश्च। चन इत्यन्ननाम निरु० ६।१६। अन्नम्-निघ० ४।३ ॥