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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
१-६ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अङ्ग) हे मित्र ! (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति आप] (कदा) कब (अराधसम्) आराधना न करनेवाले (मर्तम्) मनुष्य को (पदा) पाँव से (क्षुम्पम् इव) खुम्भी [गीली लकड़ी से उगे हुए छत्राकार छोटे पौधे] के समान (स्फुरत्) नष्ट करेंगे और (कदा) कब (नः) हमारी (गिरः) वाणियों को (शुश्रवत्) सुनेंगे ॥॥
भावार्थभाषाः - सभापति दुःखित प्रजा की पुकार सुनकर अनाज्ञाकारी दुष्ट को इस प्रकार गिरा देवे, जैसे खुम्भी वृक्ष पाँव से कुचल जाता है ॥॥
टिप्पणी: यह मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात है-।१६-१७ ॥ −(कदा) कस्मिन् काले (मर्तम्) मनुष्यम् (अराधसम्) अनाराधयन्तम्-निरु० ।१७ (पदा) पादेन (क्षुम्पम्) गलितकाष्ठोत्पन्नक्षुद्रवृक्षम्। अहिछत्रकम्-निरु० ।१६ (इव) यथा (स्फुरत्) स्फुरतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। अवस्फुरिष्यति। वधिष्यति (कदा) (नः) अस्माकम् (शुश्रवत्) श्रोष्यति-निरु० ।१७। (गिरः) वाणीः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभाध्यक्षो भवान् (अङ्ग) हे मित्र ॥