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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
१-६ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (एकः) अकेला (इत्) ही (दाशुषे) दाता (मर्ताय) मनुष्य के लिये (वसु) धन (विदयते) बहुत प्रकार देता है, (अङ्ग) हे मित्र ! वह (ईशानः) समर्थ, (अप्रतिष्कुतः) बे-रोक गतिवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सभापति] होता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सबमें बड़ा उत्साही निर्भय शूर पुरुष हो, वही सभापति राजा होवे ॥४॥
टिप्पणी: मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में है-१।८४।७-९ सामवेद-उ० ।२। तृच २२, मन्त्र ७ साम०-पू० ४।१०।९ ॥ ४−(यः) पुरुषः (एकः) अद्वितीयः (इत्) एव (विदयते) विविधं ददाति (धनम् (मर्ताय) मनुष्याय (दाशुषे) दात्रे (ईशानः) समर्थः (अप्रतिष्कुतः) अ० २०।४१।१। अप्रतिगतः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभापतिः (अङ्ग) हे मित्र ॥