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यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी। गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्वर्वृषत्व॒ना ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्य । द्विऽबर्हस: । बृहत् । सह: । दाधार । रोदसी इति ॥ गिरीन् । अज्रान् । अप: । स्व: । वृषऽत्वना॥६२.९॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:62» पर्यायः:0» मन्त्र:9


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (द्विबर्हसः) दोनों विद्या और पुरुषार्थ में बढ़े हुए (यस्य) जिस [परमात्मा] के (बृहत्) बड़े (सहः) सामर्थ्य ने (रोदसी) सूर्य और भूमि, (अज्रान्) शीघ्रगामी (गिरीन्) मेघों, (अपः) जलों [समुद्र आदि] और (स्वः) प्रकाश को (वृषत्वना) बल के साथ (दाधार) धारण किया है ॥९॥
भावार्थभाषाः - अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥९, १०॥
टिप्पणी: ८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥