हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत। आ तु नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम् ॥
पद पाठ
हरिऽअश्वम् । सत्ऽपतिम् । चर्षणिऽसहम् । स: । हि । स्म । य: । अमदन्त ॥ आ । तु । न: । स: । वयति । गव्यम् । अश्व्यम् । स्तोतृऽभ्य: । मघऽवा । शतम् ॥६२.४॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:62» पर्यायः:0» मन्त्र:4
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
१-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (हि) ही (स्म) अवश्य [मनुष्य है], (यः) जिसने (हर्यश्वम्) ले चलनेवाले घोड़ों से युक्त, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक, (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को नियम में रखनेवाले [राजा] को (अमन्दत) प्रसन्न किया है। (सः) वह (मघवा) महाधनी (तु) तो (नः) हम (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों को (शतम्) सौ [बहुत] (गव्यम्) गौओं का समूह और (अश्व्यम्) घोड़ों का समूह (आ वयति) लाता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - सब प्रजागण आज्ञा मानकर शूर धर्मात्मा राजा को प्रसन्न रक्खें, जिससे वह उत्तम प्रबन्ध के साथ प्रजा का ऐश्वर्य बढ़ावे ॥४॥
टिप्पणी: १-४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।१४।१-४ ॥