उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॒ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॑षत्। त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम् ॥
पद पाठ
उप । त्वा । कर्मन् । ऊतये । स: । न: । युवा । उग्र: । चक्राम । य: । धृषत् ॥ त्वाम् । इत् । हि । अवितारम् । ववृमहे । सखाय: । इन्द्र । सानसिम् ॥६२.२॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:62» पर्यायः:0» मन्त्र:2
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
१-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (कर्मन्) कर्म के बीच (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिये (सः) उस (यः) जिस (युवा) स्वभाव से बलवान्, (उग्रः) तेजस्वी और (धृषत्) निर्भय पुरुष ने (चक्राम) पैर बढ़ाया है, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (अवितारम्) उस रक्षक और (सानसिम्) दानी (त्वा) तुझको, (त्वाम्) तुझको (हि) ही (इत्) अवश्य (सखायः) हम मित्र लोग (उप) आदर से (ववृमहे) चुनते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष प्रजारक्षण में बड़ा पराक्रमी हो, प्रजागण सब लोगों में से उसीको राजा बनावें ॥२॥
टिप्पणी: १-४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।१४।१-४ ॥